इस्लाम धर्म को नई राह देने वाले सर सैयद अहमद खां

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सर सैयद अहमद खां, की विचारधारा इस्लाम धर्म के विकास की ओर किस प्रकार की थी. 

हिंदुस्तान में समय-समय पर समाज सुधारक को ने जन्म लिया और अपने समाज को सुधारा तथा कठिन परिश्रम और संघर्ष करके अपने समाज को एक विकसित विचारधारा की ओर धकेला, जिसके कारण हिंदुस्तानी समाज एक सही राह पर चल सके और समय के साथ अपने जीवन में परिवर्तन कर सकें।

बड़े-बड़े समाज सुधारकों में एमजी रानाडे, राजा राममोहन राय, भीमराव अंबेडकर जैसे बड़े-बड़े समाज सुधारकों ने हिंदुस्तान की सर जमीन पर जन्म लिया और अपने अपने समाज के लोगों को विकसित करने का प्रयास किया। एमजी रानाडे तथा राजा राममोहन राय ने भी पुरानी ब्राह्मणवादी विचारधाराओं का अंत किया। 

सैयद अहमद खां भी उनमें से एक थे जिन्होंने अपने इस्लाम धर्म के प्रति पूरी निष्ठा और ईमानदारी निभाते हुए इस्लाम धर्म को विकसित तथा शिक्षित करने का प्रण लिया था। सर सैयद अहमद खाँ भारतीय मुसलमानों के प्रति आधुनिक शिक्षा का प्रचार कर भारतीय मुसलमानों में राजनीतिक चेतना उजागर करना चाहते थे। 1875 में अलीगढ़ में मोहम्मडन एंग्लो ओरिएंटल कॉलेज की स्थापना अहमद खाँन के द्वारा ही की गई थी। 

अहमद खाँ और इस्लाम धर्म। 

1890 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के रूप में एंग्लो ओरिएंटल कॉलेज को विकसित किया गया। सैयद अहमद खाँ ही वह व्यक्ति थे जिन्होंने अलीगढ़ आंदोलन को एक ज्वलित राह दिखाँई अलीगढ़ आंदोलन का मूल उद्देश्य था। कि इस्लाम धर्म के समाज के लोगों को नई पीढी को आधुनिक शिक्षा की ओर ले कर जाना। इस आंदोलन का मूल उद्देश्य मुसलमानों में शिक्षा का प्रसार कर उनमें सामाजिक सुधार लाना तथा अपनी संस्कृति को सही रूप से चलाना।

अहमद खाँ का एंग्लो ओरिएंटल कॉलेज की स्थापना के पश्चात उनका केवल एक ही उद्देश्य रह गया था, कि इस्लाम धर्म के प्रति सामाजिक सुधार को उजागर करना तथा इस बात का भी खासतौर पर ध्यान रखाँ जाए कि उनकी इस्लाम धर्म के प्रति निष्ठा में कोई कमी ना आने पाए यह आंदोलन कुरान की उदारवादी व्याख्या पर आधारित था।

अलीगढ़ आंदोलन के अंतर्गत इस्लाम तथा आधुनिक उदारवादी संस्कृति में सभी लोग रहे तक उनमें किसी प्रकार का विरोधाभास उत्पन्न नहीं होना चाहिए अहमद खाँकर राजनीतिक चिंतन के दो भागों में विभाजित किया गया था जिनमें से पहला सन 1887 तक रहा था तथा दूसरा भाग 1887 के बाद प्रारंभ हुआ था।

इन दोनों भागो में उनके चिंतन में काफी विरोधभास  उत्पन्न हुआ प्रथम खंड की अवधि के दौरान उन्होंने हिंदू मुस्लिम एकता पर बहुत ही जोर दिया तथा विश्वास था कि धर्म को राष्ट्रवाद के मार्ग में बाधक नहीं होना चाहिए तथा इसके लिए आवश्यक है कि धर्म को राजनीति से बिल्कुल ही अलग रखा जाए। उनके मतानुसार धार्मिक तथा आध्यात्मिक मामलों का सांसारिक मामलों से किसी प्रकार का संबंध नहीं होता वायसराय की विधायिका परिषद के सदस्य के रूप में उन्होंने हिंदुओं और मुसलमानों दोनों के कल्याण के लिए प्रयास किए थे।

सर सैयद अहमद खाँ और कुरान।

सर अहमद ने कुरान शब्द का अपने शब्दों में अर्थ बताया कि जब मैं कुरान का नाम लेता हूं तो मैं हिंदू धर्म तथा मुसलमान दोनों के साथ साथ सभी धर्म को एक समान दृष्टि से देखता हूं, चाहे वह हिंदू हो मुसलमान या किसी अन्य धर्म से संबंध रखने वाला समाज।

उनके अनुसार सभी धर्म हम इसी देश में रहते हैं एक जैसा खाते हैं, तथा एक जैसा पहनते हैं और अपनी जीवनशैली इसी देश के भीतर बेहतर बनाते हैं अनेक संघर्षों के द्वारा। हिंदुओं और मुसलमानों की एकता को और मूल्यवान बनाने के लिए ही अहमद खाँ ने एम ए कॉलेज की स्थापना की थी, जिसका उद्देश्य यह था कि दोनों धर्मों के भीतर आधुनिक शिक्षा का प्रचार प्रसार करना।

एम ए कॉलेज की स्थापना के पश्चात सर अहमद ने कॉलेज के भीतर हिंदुओं शिक्षकों अध्यापकों को नियुक्त किया जिसके चलते हिंदुओं और मुसलमानों की बीच की दूरियां एकदम समाप्त होने को थी । दोनों धर्मों के प्रति सम्मान और प्यार बढ़ता जा रहा था।  हिंदुओं की भावनाओं को ठेस ना लगे, अहमद ने कॉलेज के भीतर गौ हत्या पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया, प्रतिबंध लगाने के बाद हिंदुओं के दिलों में सर अहमद के लिए और भी प्यार उजागर हो गया। 

अहमद खाँ और ब्रिटिश सरकार।

दूसरा दौर आते-आते अहमद खाँन की विचारधारा में एक बहुत ही आश्चर्यजनक बदलाव देखने को मिला, उनका बदलाव कुछ इस प्रकार का था कि वह ब्रिटिश सरकार की प्रशंसा करके हिंदुस्तानियों को इस बात का विश्वास दिलाना चाहते थे कि ब्रिटिश सरकार हिंदुस्तानी लोगों के साथ बिल्कुल सही कर रही है, तथा अगर वह ब्रिटिश सरकार के शासन में ही रहेंगे तो वही उनके लिए लाभदायक होगा। 

ब्रिटिश शासन को प्रजातांत्रिक तथा प्रगतिशील बनाने में लगे हुए थे उनकी रचनाओं में साम्राज्यवादी चिंतन की अभिव्यक्ति मिलती थी तथा उन्होंने प्रतिनिधित्व के सिद्धांतों को प्रारंभ मे तथा संसदीय सरकार की स्थापना का विरोध किया उनका मत था कि भारत में धार्मिक जातिगत तथा वर्गवत  के कारण प्रजातंत्र सही रूप से स्थापित नहीं किया जा सकता। उनको इस बात का भय सता रहा था कि अगर धार्मिक तौर पर समाज की स्थापना की जाएगी तो उनके इस्लाम धर्म के लोग कहीं पिछड़े वर्ग में ना रह जाए। 

द्वि-राष्ट्रीय सिद्धांत से चिंतित सर अहमद खाँ।

जैसे जैसे दौर  बदलता गया वैसे वैसे अहमद की विचारधारा कुछ द्विराष्ट्र सिद्धांत की ओर बढ़ती दिख रही थी। इस सिद्धांत के अनुसार हिंदू तथा मुसलमान दोनों ही दो अलग-अलग संस्कृति तथा धर्म है उनका मत था कि अगर हमें पिछड़े वर्ग की ओर रखाँ गया तो हमारा समाज कभी विकसित नहीं हो पाएगा तथा बहुसंख्यक समाज की ही स्थापना सही रूप से हो पाएगी। 

राजनीतिक तथा सामाजिक हितों में भिन्नता है तथा उनकी संस्कृति और ऐतिहासिक जन्मभूमि भी अलग-अलग है। उनका मत था कि हिंदू और मुसलमान दोनों एक साथ मिलकर कभी एक राष्ट्रीय का निर्माण नहीं कर सकते सर सैयद चुनावों तथा राजनीतिक आंदोलन के भी विरुद्ध दिखाँई पड़े क्योंकि उनका मानना था कि यह आंदोलन सरकार के विरुद्ध होगा तथा देशद्रोह के समान होगा इनके कारण ब्रिटिश सरकार उन्हें भी निष्ठावान समझेगी और मुसलमानों को इस आंदोलन से दूर रहना चाहिए।  

सर सैयद चुनाव के खिलाफ इसलिए थे क्योंकि उनके अनुसार इसके द्वारा कांग्रेस के सुशासन की स्थापना होगी जो मुस्लिम विरोधी हो सकती है तथा उन पर अत्याचार आने वाले समय में होगा बाद में सर सैयद ब्रिटिश सरकार से प्रभावित होकर कांग्रेस को समर्थन देने लगे तथा अपने समाज के लोगों को विकसित करने के लिए वह जीवन भर कांग्रेस के वफादार के रूप में कार्य करते रहे।