स्वामी विवेकानंद और भारतीयो का स्वाभिमान

स्वामी विवेकानंद और भारतवासियों के दिल में स्वाभिमान की भावना

राष्ट्रवाद और स्वामी विवेकानंद

स्वामी जी विवेकानंद एक बहुत ही सच्चे मन के राष्ट्रवादी थे वह विश्व के देशों में, भारत की जो स्थिति चल रही थी उसे लेकर वह बहुत ही चिंतित थे भारत ना केवल राजनीतिक रूप से भी ब्रिटेन का गुलाम बन चुका था बल्कि मानसिक स्थिति और बौद्धिक रूप से भी पूरी तरह से ब्रिटेन का गुलाम बन चुका था

ब्रिटिश शिक्षा पद्धति तथा रहन-सहन भारतीयवासियों के दिल दिमाग और पर बेठता जा रहा था, भारतवासी अपनी सच्चाई खोते जा रहे थे जिनका उन्हें आभास भी नहीं था इन्हीं सब बातों को लेकर स्वामी विवेकानंद बहुत ही चिंतित दिखाई पड़ते थे उन्होंने इस सब को रोकने के लिए भारतीयों के दिल में स्वाभिमान की भावना को जागृत किया

स्वामी विवेकानंद का लक्ष्य

स्वामी विवेकानंद ने प्राचीन भारतीय वैदिक धर्म तथा संस्कृति की अहमियत को समझते हुए यह सिद्ध करना चाहा कि भारत की सोई हुई आत्मा को अब जगाना ही होगा अगर वह समय से नहीं जागे तो वह जिंदगी भर गुलामी करते रह जाएंगे साथ ही भारत अपनी प्राचीन संस्कृति को भूल चुका है स्वामी जी ने भारत के राष्ट्रीय स्वाभिमान को उजागर करने के लिए प्राचीन हिंदू वैदिक धर्म को अपना आधार बनाया और जो लोग भारतवासी ब्रिटिश सरकार की सदियों से गुलामी कर रहे थे अब स्वामी विवेकानंद ने उन्हें गुलामी से आजादी दिलाने पूर्ण रूप से मन बना लिया था।

धार्मिक और आध्यात्मिक का पुनर्निर्माण

स्वामी विवेकानंद ने भारतीयों में आत्मविश्वास को जगाने के लिए वेदों और उपनिषदों का भी सहारा निरंतर लिया तथा उन्होंने भारतीयों को  करते हुए कहा की उपनिषदों की ओर वापस चलो तथा उपनिषदों द्वारा स्थापित सत्य आपके सामने उन पर अमल करो तथा भारत की मुक्ति शीघ्र ही होगी।

स्वामी जी ने राष्ट्रवाद की आध्यात्मिक व्याख्या प्रस्तुत करते हुए स्वामी जी यह अच्छी तरह से समझते थे कि सदियों तक दास बने रहना और गुलामी करना तथा जंजीरों में जकड़े रहने के कारण भारतवासियों की आत्मा पूरी तरह सो चुकी है , उनका स्वाभिमान पूरी तरह मर चुका है, भारत की आत्मा को पुनर्जीवन देने तथा राष्ट्रीय स्वाभिमान को जगाने के लिए एक धार्मिक तथा आध्यात्मिक चेतना की आवश्यकता थी।

स्वामी विवेकानंद द्वारा भारत के प्राचीन धार्मिक तथा आध्यात्मिक गौरव की याद दिलाते हुए भारत वासियों को उस गौरव को फिर से प्राप्त करने का साहस दिलाया तथा भारत वासियों में प्रचलित अलग-अलग मत के खिलाफ स्वामी विवेकानंद रहते थे।

एक ऐसे सामान्य वर्ग का विकास करना चाहते थे, जिसमें विभिन्न धार्मिक मतों के प्रमुख सिद्धांत मिले-जुले हो उनका मानना था कि इन धार्मिक मतों का पृथक अस्तित्व तो बना रहे परंतु इनसे राष्ट्रीय एकता में कोई भी रुकावट नहीं आनी चाहिए उन्होंने अपने इस सामान्य धर्म की व्याख्या करते हुए बताया वेदांत का मस्तिष्क बौद्ध की करुणा तथा इस्लाम का शरीर होना चाहिए विवेकानंद इस प्रकार के धर्म के द्वारा राष्ट्रीय एकता को सशक्त करना चाहते थे।

हीगल की विचारधारा और स्वामी जी

हीगल की ही तरह स्वामी विवेकानंद का मानना था कि हर एक राष्ट्रीय का एक मिशन होता है वह राममोहन राय तथा केशवचंद्र चीन की इस अवधारणा से सहमत नहीं थे कि इंग्लैंड का मिशन भारत को एक ही रास्ता तथा सबवे बनाना है इसके विपरीत स्वामी जी का मत था कि भारत का मिशन ब्रिटेन सहित यूरोप को अध्यात्मिक संदेश देना है पश्चिमी देशों में अत्यधिक भौतिकवाद के कारण धार्मिक तथा आध्यात्मिक मूल्य पूरी तरह से विलुप्त हो चुके थे जिससे कि पश्चिमी सभ्यता पूर्ण रूप से खत्म हो गई थी पश्चिमी सभ्यता में भारत के धार्मिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों का समावेश आवश्यक ही होता है भारत की पश्चिम को धार्मिक तथा आध्यात्मिक संदेश दे सकने में समर्थ है