आदिवासियों द्वारा किए गए संघर्ष और आंदोलन

आदिवासियो द्वारा किए गए आंदोलन ।

भारत लंबे समय से ब्रिटिश सरकार की गुलामी करता आ रहा था तथा भारतीयों को गुलामी की आदत पड़ चुकी थी समय बीतता गया और गुलामी अपने चरम पर थी तथा सारे मूल अधिकारों का हनन पूरी तरह से कर दिया गया था।

अंग्रेजों द्वारा तथा भारतवासियों को आजादी की उम्मीद बिल्कुल भी नहीं थी क्योंकि ब्रिटिश सरकार ने लगभग पूरे भारत पर ही अपना वर्चस्व कायम कर लिया था, अंग्रेजों ने अपने शासन की  नीतियों ने जिस तरह आदिवासियों का भी शोषण किया उसका जवाब आदिवासियों तथा उनके संगठनों ने विद्रोह तथा आंदोलन की शक्ल में अंग्रेजों का सामना किया। पहला आदिवासी आंदोलन 19वीं शताब्दी के उत्तर के हिस्से में हुआ आदिवासियों ने 1857 के विद्रोह में भी भाग लिया तथा अंग्रेजी सरकार का डटकर सामना किया।

तामर संघर्ष

तामर विद्रोह तमर के आदिवासियों ने सबसे पहले अंग्रेजो के खिलाफ आवाज उठाई 1789 से लेकर 1832 के दरमियान उन्होंने सात बार विद्रोह किया उनकी लड़ाई दिक साथ सांठगांठ वाली सरकार के खिलाफ थी उनका नेतृत्व तामर के भोलानाथ सहाय ने किया कायलपुर, कानपुरड़ाड़ा, वतसीला जालदा और सितली जैसे आसपास के इलाकों के आदिवासियों ने उनका पूरा समर्थन किया। 

आदिवासियों ने इस क्षेत्र के हर गांव के तत्वों को मार डाला उनकी संपत्ति लूट ली तथा उनके घरों को जला दिया साल 1835 में सरकार ने इस विद्रोह को दबा दिया उन्होंने प्रशासन के कुछ नियम आसान बनाएं तथा आदिवासी सरदार या गांव के मुखिया के जरिए प्रशासन बरकरार रखा।  

खेखार आंदोलन

संथालो द्वारा किया गया खेखार आंदोलन इस आंदोलन को 1833 में उजागर किया गया आदिवासियों को स्वाधीनता की प्रेरणा देने के लिए इस आंदोलन को किया गया,  ‘खेखारसंथालों का पुराना नाम था तथा यह नाम उन्हें प्राचीन समय में स्वाधीन होने की बात याद दिलाता था इस आंदोलन भागीरथ काझा के कारश्यामी उर्फ बाबाजी के नेतृत्व में शुरू किया गया उन्होंने लोगों को यह विश्वास दिलाया कि अगर वह ईश्वर की पूजा करेंगे और अपने पापों का प्रायश्चित करेंगे तो उनका स्वाधीनता का योग वापिस आ जाएगा तथा उनकी भूमि भी उन्हें वापस मिल जाएगी इस आंदोलन में गैर संथालों का उस जगह आना साफ मना था जिससे इस आंदोलन ने राजनीतिक रंग ले लिया।

संथाल विद्रोह

संथालों के  विद्रोह का मकसद था कि जमीदारों के दमन के खिलाफ जो संस्थानों की भूमि जबरन कब्जा कर लिया करते थे ,साथ ही यह विद्रोह उन महाजनों व सरकारी अधिकारियों के खिलाफ भी किया जा रहा था जो इस मामले में दोषी पाए गए थे संस्थालो की अगुवाई सिवेन्धु और काहनु नामक दो भाई कर रहे थे उनका एकमात्र लक्ष्य अपनी भूमि को वापस लेना था 60 दिन के इस आंदोलन के बाद 5000 वर्ग मील का क्षेत्र संथाल परगना घोषित कर दिया गया था और जमीनी मसलो से निपटने के लिए एक प्रशासनिक अध्यक्ष नियुक्त किया गया।

बाक्टा विद्रोह

बाक्टा विद्रोह का प्रचलन सन 1858 से 1895 तक के बीच हुआ यह आंदोलन छोटे नागपुर के अलग-अलग क्षेत्रों में होता रहा इसका उद्देश्य केवल जमीदारों को बाहर कर भूमि के प्राचीन अधिकार को बेहाल कर उसे आदिवासियों को सौंपना था। बाक्टा आंदोलन का दौर 3 भाग में चला जिसमें जमीदारों और काश्तकारों में काफी हिंसा हुई तथा आदिवासियों का यह विचार था कि उनके दुखों का राज अंग्रेजी शासन था जब कोई संवैधानिक हल निकल ही नहीं सकता था तो यह लोग हिंसक हो गए 1892 में इन्होंने ठेकेदारों व जर्मन मिशनरियों को मारने की योजना बनाई जिसमे वह पूरी तरह से नाकामयाब रहे थे।

बिरसा मुंडा

बिरसा मुंडा विद्रोह यह विद्रोह छोटानागपुर क्षेत्र का सबसे लोकप्रिय आंदोलन माना जाता है आज के दिनों में भी यह आंदोलन बिरसा मुंडा की अगवाई में जमीदारों व्यापारियों तथा सरकारी अधिकारियों के विरुद्ध किया जा रहा था क्योंकि सरकारी अधिकारी रैयतवाड़ी व्यवस्था तथा अर्थव्यवस्था का मुद्रीकरण करना चाहते थे इन कारणों से आदिवासियों की स्थिति शोचनीय हो गई तथा जमीदार महाजन व सरकारी अधिकारी सब आपस में मिलकर आदिवासियों का शोषण करने लगे, उनकी हालत और बद से बदतर कर दी।  

आदिवासी हिंसा पर उतारू हो गए तो सरकार को दखल देना पड़ा उसके बाद सरकार द्वारा नए काश्तकारी नियम बनाए गए भूमि के सही प्रकार से नए रिकॉर्ड बनाए गए  तथा आदिवासियों का नेतृत्व करने वाला बिरसा मुंडा एक बड़ा नायक बनकर उभरा अपने समुदाय के लोगो के लिए।