एक ऐसा समाज सुधारक जिसने हिन्दू धर्म को अलग राह दी

एक ऐसा समाज सुधारक जिसने हिन्दू धर्म को अलग राह दी

राजा राममोहन राय के विचार तथा उन्होंने समाज में कैसे सुधार किए।

राजा राममोहन राय सदैव ब्राह्मणवाद के खिलाफ थे तथा उनकी जो विचारधारा सदियों से चली आ रही थी वह उनके भी पूरी तरह खिलाफ थे और उनकी आलोचना भी किया करते थे, विद्वानों द्वारा मोहन राय को भारतीय सामाजिक पुनर्जागरण के दूत यानि, एक समाज सुधारक की पदवी से विभूषित करना तथा वास्तव में समाज सुधारक के रूप में उनके कार्यों का मूल्यांकन करना।

सती प्रथा की आलोचना वह विरोध।

सती प्रथा का प्रचलन व आरंभ राजपूत के काल में माना जाता है राजपूत शासक विदेशी मुगलों से युद्ध भूमि में जब लड़ने के लिए जाया करते थे तथा उनकी हार का समाचार सुनकर उनकी स्त्रियां इस डर से की बाद में जो विजेता मुगल शासक हमसे आकर बदसलूकी करेगा वह इस डर से अपने पति के मृत शरीर के साथ अपने आप को भी जिंदा जला लिया करती थी।

जैसे-जैसे समय बीतता गया समाज के लोगों ने सती प्रथा को आगे बढ़ा दिया तथा यह प्रथा अन्य समुदाय तथा जातियों में फैलती जा रही थी। समाज के लोग किसी स्त्री के विधवा होने पर उसको जिंदा जलने के लिए उस पर दबाव बनाया करते थे तथा वह किसी तरह हिम्मत करके उस आग की ओर बढ़ती भी थी तो वह डर जाती थी वह अपनी जान बचाकर भागना चाहती थी भी तो समाज के लोग इतने विषैले मन के हुआ करते थे की उन स्त्रियों को पकड़कर वह जलती आग में धकेल दिया करते थे।

राममोहन राय ने इस सती प्रथा जो कि हिंदू विधवा पति के साथ जीवित जलने की प्रथा समाज के लोगों के द्वारा चलाई गई थी राममोहन राय सदैव इसके खिलाफ थे और उन्होंने अनेक अनेक प्रयास इस प्रथा को समाप्त करने के लिए समय-समय पर आंदोलन करते रहे।

राय ने कई प्रकार के प्रयास किए सती प्रथा के विरुद्ध उन्होंने कुछ लोगों का संगठन बनाया तथा जहां-जहां औरतों को को जिंदा जलाने का प्रयास किया जाता था उन जगहों पर राय तथा उनके संगठन के लोग पहुंच जाते थे और उन औरतों को बचाने का प्रयास किया करते थे उन्होंने समाज के अज्ञानी तथा पुराने विचार धाराओं के लोगों को अनेक प्रयास किए समझाने की लेकिन लोगों के अशिक्षित होने के कारण उनके दिमाग में यह बात बैठ नहीं पाई।

राजा राममोहन राय ने सती प्रथा को रोकने के लिए अपनी मेहनत तथा संघर्ष जारी रखा उन्होंने समय-समय पर अपने संगठन के लोगों के साथ मिलकर इस प्रथा का विरोध किया तथा समाज के लोगों को भी इस प्रथा को अपनाने से रोका “जमुना नागपुर की राजा राममोहन राय की जीवनी लेखक हैउन्होंने कहा कि राजा राममोहन के अनुसार सती प्रथा की जड़ में घोर शिक्षा संकीर्ण मनोवृति तथा विधवाओं को समाप्त करने का निर्णय विद्वान था जो समाज पर बहुत समझी जाती थी।

1829 मैं राजा राममोहन राय ने सती प्रथा का विरोध एक बहुत ही बड़े पैमाने पर किया तथा उनके साथ बहुत सी महिलाओं का समर्थन भी आया और समाज के कुछ शिक्षित वर्गों ने भी इस प्रथा का विरोध किया तथा इसे समाप्त करने के लिए ब्रिटिश सरकार से एक कानून की गुहार लगाई, लॉर्ड विलियम बेंटिंग ने 1829 में कानून बनाकर सती प्रथा का अंत कर दिया।

राजा राममोहन राय के द्वारा सती प्रथा का अंत हुआ तथा उनके बिना इस प्रथा का खात्मा नहीं हो सकता था उन्होंने अंग्रेजी सरकार से गुहार लगाकर इस प्रथा खात्मा करा दिया तथा समाज में एक अच्छी विचारधारा और अनेक प्रकार के बदलाव की क्रांति चलाई। 

बाल विवाह का विरोध।

राजा राममोहन राय ने जिस प्रकार सती प्रथा का अंत किया उसी प्रकार मोहन राय ने बाल विवाह का भी विरोध किया उनके अनुसार बाल विवाह के विचार भी सती प्रथा के निर्माताओं से मेल खाते हैं, हिंदू समाज में बहुत छोटी उम्र में 8 से 10 वर्ष की आयु में ही बच्चों में विवाह की परंपरा प्रारंभ कर दी गई जो कि एक बहुत ही गलत विचारधारा मानी जाती थी समाज के छोटे-छोटे बच्चो के लिए। राजा राममोहन राय के अनुसार प्राचीन हिंदू ग्रंथों का उल्लेख करते हुए बताया कि वैदिक काल में बाल विवाह जैसी परंपरा की कोई जगह नहीं है तथा यह कुप्रथा तो बाद में विकसित हुई।

बाल विधवाओं का फिर से विवाह।

जैसे-जैसे राज मोहन राय प्राचीन परंपराओं का खात्मा करते जा रहे थे जिनमें सती प्रथा और बाल विवाह का अंत हो चुका था उसी के साथ साथ मोहन राय ने बाल विधवाओं यानि जो छोटी-छोटी लड़कियों की शादी कम उम्र में कर दी जाती थी तथा वह विधवा हो जाती थी कुप्रथा के अनुसार उन लड़कियों को फिर से शादी करने का हक नहीं था। राजा राममोहन राय ने इसकी आलोचना की तथा इसके लिए भी आंदोलन चलाया तथा अनेक प्रकार के संघर्ष किए तथा समय के साथ साथ मोहन राय ने इस प्रथा का भी अंत कर दिया।

भारतीय महिलाओं को समाज में एक सम्मानजनक स्थान दिलाना।

राममोहन राय ने सती प्रथा तथा बाल विवाह जैसी सामाजिक प्रथाओं के विरुद्ध संघर्ष तो किया ही था साथ में उन्होंने भारतीय नारी को सम्मानजनक स्थान दिलाने के लिए भी अनेक अनेक प्रयास समय-समय पर करते रहे।

राममोहन राय ने वेदों उपनिषदों तथा अन्य प्राचीन भारतीय ग्रंथों से उदाहरण देकर यह सिद्ध किया कि भारतीय नारी किसी भी क्षेत्र में पुरुष की तुलना में कतेह भी कम नहीं है। महिला तथा पुरुष समाज में एक समान ही माने जाने चाहिए तथा उनके बीच किसी प्रकार का भेदभाव नहीं करना चाहिए।

राजा राममोहन राय सदैव से ही नारी के अधिकारों के समर्थक थे उनके अनुसार उनका मत था कि हिंदू समाज में स्त्री की स्थिति पुरुष के समान ही होनी चाहिए तथा अन्य एक समान अधिकार प्राप्त भी होने चाहिए लेकिन यह तभी संभव है जब की महिलाओं में शिक्षा का प्रचार प्रसार हो, इसी कारण उन्होंने महिलाओं की शिक्षा के लिए आंदोलन चलाए तथा जोरदार वकालत की।

हिंदू पेतकता कानून की आलोचना करते हुए राजा राममोहन राय ने इसे महिलाओं के विरुद्ध बताया तथा इसमें सुधार करने तथा बदलाव करने की मांग रखी साल 1822 में उन्होंने  अपने एक लेख प्राचीन हिंदू विधि निर्माताओं के मतों का उदाहरण देते हुए कहा कि पति द्वारा छोड़ी गई संपत्ति में उसकी पत्नी का पुत्र के बराबर ऐसा तथा लड़की को एक चौथाई हिस्सा प्राप्त होना चाहिए इस प्रकार राममोहन राय नारी स्वतंत्रता तथा नारी अधिकारों की वकालत करने वाले समाज में पहले व्यक्ति थे। 

हिंदू पाखंडवाद तथा मूर्ति पूजन का विरोध ।

राजा राममोहन राय संस्कृत अरबी तथा अंग्रेजी भाषा के विद्वान माने जाते थे उन्होंने सभी धर्मों के ग्रंथों चाहे वह हिंदू धर्म के भीतर आते हो तथा कुरान और बाइबिल का मूल भाषाओं में अध्ययन भी किया था विभिन्न धर्मों के तुलनात्मक अध्ययन के पश्चात वह हिंदू धर्म में मूर्ति पूजा के बहुत ही बड़े वाले विरोधी तथा आलोचक के रूप में सामने आए। 

राजा राममोहन राय के अनुसार उनका विचार था कि हिंदू धर्म में कई प्रकार के मतों तथा विभाजनों का मुख्य कारण ही मूर्ति पूजा है पुराने हिंदू धर्म ग्रंथों का अध्ययन करने के बाद उन्होंने बताया कि मूर्ति पूजा हिंदू धर्म का मौलिक तत्व अथर्व मूर्ति पूजा का हिंदू धर्म से कोई लेना देना नहीं है, वैदिक कालीन लोग मूर्तिपूजक बिल्कुल भी नहीं थे और ना ही वह वेदों में कहीं मूर्ति पूजा का उल्लेख करते हैं।

मूर्ति पूजा का कहीं कोई नहीं है राजा राममोहन राय ने मूर्ति पूजा के खिलाफ विचार देते हुए कहा कि यह अंधविश्वास तथा अंधश्रद्धा का परिणाम है हिंदू समाज के रूढ़िवादी तत्वों द्वारा राजा राममोहन राय के मूर्ति पूजा विरोध की बहुत आलोचना हुई तथा उन्हें नास्तिक कहा गया परंतु राममोहन राय विरोध की परवाह किए बिना ही अपने मिशन में निरंतर कार्य करते रहे तथा समाज को एक अच्छी विचारधारा तथा बेहतर बनाने के लिए निरंतर प्रयास करते रहे।