मुगल काल और अकबर की वास्तविकता अन्य धर्मो के प्रति

मुगल साम्राज्य में सभी धर्मों की वास्तविकता किस प्रकार थी

मुगल शासकों की अपनी कोई खास धार्मिक नीति नहीं थी, परंतु मुगल काल के सम्राट व्यक्तिगत दृष्टिकोण तथा अपने विचारों पर ही उनकी नीति निर्भर किया करती थी। मुगल काल के दौरान मुगल शासकों की दृष्टि धर्म और धार्मिक समुदाय के प्रति कुछ अलग प्रकार की थी। 

इतिहास में हमें बताया जाता है कि कैसे मुगल शासकों ने अन्य धर्म के लोगों को प्रताड़ित कर उन्हें मौत के घाट उतार दिया गया था, लेकिन हमें यह नहीं बताया जाता कि कुछ मुगल शासक सभी धार्मिक विचार धाराओं का सम्मान किया करते थे तथा अपने शासन में सभी को स्वतंत्र रूप से जीवन जीने का अधिकार प्रदान किया करते थे।

मोहम्मद जलालुद्दीन अकबर की विचारधारा अन्य धर्मों के प्रति किस प्रकार की थी?

मुगल काल का आरंभ बाबर के द्वारा सन 1526 में शुरू हो गया था। बाबर ने इब्राहिम लोदी को पराजित कर अपना शासन कायम किया था। समय बदलता गया और लोगों की विचारधारा भी बदल दी गई, साल 1560 आते आते मुगल शासकों की विचारधारा अनेक धर्मों के प्रति बहुत ही सरल और दयालु हो गई थी। मोहम्मद जलालुद्दीन अकबर भी उन्हीं मुगल शासकों में से आते हैं जिनके नेतृत्व में उनकी सेना तथा उनके साम्राज्य के लोग पूरी तरह अपने साम्राज्य में आजादी से रहे। जलालुद्दीन अकबर के शासन में किसी भी प्रकार का जातिगत तथा धार्मिक भेदभाव नहीं किया गया। 

1560-65 के बीच अकबर ने सत्ता संभालते ही सभी धर्म से संबंधित अनेक अनेक प्रकार के निर्णय लिए। अकबर के द्वारा किए गए अनेक कार्यों से उनका धार्मिक दृष्टिकोण स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता था। अपने शासनकाल में अकबर ने राजपूतों से वैवाहिक संबंध स्थापित किए तीर्थ यात्रा पर लगाया जाने वाला कर जलालुद्दीन अकबर के द्वारा हटा दिया गया। युद्ध के दौरान परास्त हुए सैनिकों और आम जनता पर इस्लाम धर्म अपनाने पर मोहम्मद जलालुद्दीन अकबर ने पूरी तरह रोक लगा दी। आपस में जो लेनदेन की प्रक्रिया बनाई गई थी जिसे जजिया का नाम दिया गया था। अकबर के द्वारा वस्तुओं पर लगाया हुआ कर भी समाप्त कर दिया गया जिसे मुगल काल में जजिया कर के नाम से जाना जाता था। 

अकबर के अलग-अलग बौद्धिक प्रभावों और भरण-पोषण ने उसके व्यक्तिगत विचारों को परिवर्तित करने में बहुत ही अहम भूमिका निभाई थी। उदारवादी दृष्टिकोण को आडंबरपूर्ण कहा गया था। अविश्वसनीय मुस्लिम समर्थन के अभाव में अकबर के पास राजपूतों और भारतीय मुसलमान के साथ संधि करने के अलावा और कोई चारा नहीं बचा था। उन सब के पीछे राजनीतिक उद्देश्य को उनका कारण बताया गया है।

अकबर के धार्मिक विचारों में बदलाव।

साल 1565 ईसा पूर्व के पश्चात अकबर के दिमाग में धर्म को लेकर उसके दृष्टिकोण में महत्वपूर्ण बदलाव देखने को मिला। अकबर के वकील मुनीम खाने एक दस्तावेज 1566 पर हस्ताक्षर किए, उस दस्तावेज के भीतर आगरा के आसपास के इलाके से जजिया कर वसूल करने का आदेश था। अकबर ने राजपूतों के खिलाफ लड़े गए युद्ध को जेहाद कहा, मंदिर तोड़कर और काफी लोगों को मारकर उसे गौरवान्वित महसूस हुआ।

उस्मानी के अनुसार, सम्राट अकबर ने बिलग्राम के काजी अब्दुल समद को उनके साम्राज्य के आसपास के हिंदुओं के द्वारा की जाने वाली मूर्ति पूजा रोकने का आदेश भी जारी कर दिया था। सन 1574 में अकबर के पुत्रों का प्रचलन हुआ, प्रचलन होने के पश्चात अकबर की विचारधारा में बहुत से बदलाव देखने को मिले।

1575

1575 ईसवी में अकबर ने फतेहपुर सीकरी में इबादत खाना बनवाया था, साथ ही साथ इस्लाम धर्म सिद्धांत के विभिन्न मुद्दों पर मुक्त बहस करने के लिए इस इबादत खाने की स्थापना की गई थी। शुरुआती दौर में केवल सुन्नियों को ही इस बहस में हिस्सा लेने का मौका मिला था, सितंबर 1578 ईस्वी में सम्राट ने सूफियों ब्राह्मणों, जैन, ईसाइयों, यहूदियों तथा पारसियों और अनेक प्रकार के धर्म के व्यक्तियों के लिए विवादित खाने के द्वार खोल दिए थे।

मुजाहिद और इमाम आदिल खुद को घोषित करने के बाद अकबर ने सभी धार्मिक मसलों पर उलेमा के बीच के मतभेदों को निपटाने और मत व्यक्त करने का अधिकार प्राप्त करने का दावा किया था। मुगल साम्राज्य के एक समुदाय ने इसका बहुत ही जोरदार विरोध किया लेकिन अंत में अकबर ने कट्टरपंथियों को दबाने में पूरी तरह सफलता हासिल कर ली थी। 1579 ईस्वी में मोहम्मद जलालुद्दीन अकबर ने ‘महजरनामा’ की घोषणा कर दी थी और 1582 ईस्वी में अकबर के द्वारा दिन ए इलाही नामक नया धर्म चलाया जिसे प्रारंभ में तोहिद ए इलाही कहा जाता था।